देवात्मा हिमालय के साधक- खाली हाथ कोई नही आया

हिमालय की हसीन वादियों में छुपा है एक गहरा राज़.. राज़ उन अनजाने चेहरों का जो इस दुनिया में कहीं नहीं दिखाई देते, राज़ उन अनजाने लोगों को जिन्हें इस दुनिया का नहीं कहा जा सकता. ये रहस्य करीब 250 साल पुराना है और इसे जानने के लिए हिमालय की बर्फीली घाटियों में तांत्रिक कर रहे हैं अब तक की सबसे बड़ी साधना
ईश्वर सौ वर्ष में भी हिमालय की गरिमा का वर्णन नही कर सकता, जिस प्रकार प्रात- कालीन सूर्य की किरणों से ओस बिन्दु  वाष्पिंत हो जाता है उसी प्रकार हिमालय देखने मात्र से मानव जाति के पाप विलुप्त हो जाते हैं- यह स्कबन्दपुराण के मानस खण्ड में लिखा गया है-

देवात्मा हिमालय के साधक
हम हिमालय के जितने अंदर जाएंगे, उतनी हमें नई जानकारियां उपलब्ध होती जाएंगी। देवात्मा हिमालय का वर्णन अवर्णनीय है। कहते हैं हिमालय में बड़े-बड़े आश्रम हैं। जहां पर आज भी सैकडों साधक अपनी-अपनी साधना में लगे हुए हैं। ऐसे ही इस हिमाच्छादित प्रदेश में अनंत रहस्यों से भरा है एक मठ जिसका नाम है ज्ञानगंज। वैसे तो इस आश्रम की स्थापना एक हजार पांच सौ वर्ष पूर्व हुई थी परन्तु इसको प्रकट करने का श्रेय जाता है बनारस के मायावी या गंधबाबा के नाम से प्रसिद्ध स्वामी श्री विशुद्धानंद परमहंस को।महर्षि महात्मा की उम्र है लगभग 1400 वर्ष जो अधिकतर निराहार ही रहते हैं। श्री भृगराम परमहंस देव जी लगभग 450 वर्ष के हैं। इसके अलावा पायलट बाबा का भी कहना है कि वह हिमालय में छह-छह माह निराहार रहते है। हिमालय के रहस्यमय व दिव्य स्वरुप के बारे में उनकी दो पुस्तकें बेजोड़ हैं।
हिमालय आदि काल से रहस्यमय रहा है जैसे-जैसे रहस्य की परतें हटती गई, वैसे-वैसे रहस्य और गहराता गया। सदियों से यह प्राणी मात्र को अपनी ओर आकर्षित करता आया है चाहे इसका कारण वहां पाई जाने वाली दिव्य वानस्पतिक संपदाएं हो या हजारों सालों से तपस्यारत साधुअें की तपस्या स्थली या फिर देवताओं का मनोरम स्थल। गंगा और सिंधु जैसी पवित्र नदियों का उद्गम स्थल भी तो हिमालय ही है। कहते हैं वहां बड़े-बड़े आश्रम हैं जहां पर आज भी सैकड़ों साधक अपनी साधना में लगे हुए हैं।

उत्तराखण्ड से चन्द्रशेखर जोशी द्वारा प्रस्तुत आलेख में हिमालय के ऐसे साधको के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया गया है जिन्होंने पूरे विश्व को प्रभावित किया तथा जो साक्षात कुदरत के करीब थे। इस आलेख पर आपकी बहुमूल्य राय के इंतजार में-

 आज भी उत्तराखण्ड में देवता ”अतराते“ हैं और उनको प्रसन्न करने के लिए ”जागर“ लगता है। उत्तराखण्ड सिद्ध क्षेत्र अनादिकाल से रहा है। यहां अनेकानेक स्थानीय देवता सिद्ध पुरुषों के पूज्य देवी-देवता ही हैं। आज भी यहां नाथ सिद्धियों की परम्परा विद्यमान है  मीडिया की सबसे बडी शख्सियत प्रणव रॉय- जिनके मन में हिमालय के प्रति अगाध श्रद्वा व विश्वास है- यह बहुत राज का विषय भी है कि उनका हिमालय से गहरा संबंध है- इसे स्वंयं प्रणव राय ने स्वीकारा है- देखा जाए तो हिमालय के प्रति अगाध श्रद्वा व विश्वाहस रखने वाले प्रणव राय व नरेन्द्र मोदी आज दुनियां को प्रभावित करने वाली शख्सिपयत बन चुके हैं- यह हिमालय का ही तो वरदान है- जो इनको मिला- अब हिमालय की ओर राहुल गॉधी आकर्षित हुए है,  देवात्‍मा हिमालय में जो भी गया, साधारण बन कर गया,और शक्‍तिशाली बन कर लौटा-

चन्द्रशेखर जोशी द्वारा की एक्‍सक्‍लूसिव स्‍टोरी-  हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्‍तराखण्‍ड

मेरे इस आलेख को देश भर के न्‍यूजपोर्टलो ने समय समय पर प्रमुखता से प्रकाशित किया है-   Click Link;

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अनादिकाल से ही हिमालय साधकों को साधना स्थली रहा है। प्रागैतिहासिक कथाओं में शिव समाधि का कैलाश इसी की कोख में अवस्थित है। पार्वती ने यहीं तपस्या की थी, शिव की समाधि यही लगी थी, काम देवता ने शिव की समाधि भंग करने को यही रवि क्रीढा की थी। पांचों तत्वों को प्रमाण रुप में अधिकार में रखने वाला शिव रुप का निरुपण भी यहीं हुआ। ऋषियों, मुनियों ने उषा के अपार वैभव के दर्शन का ब्रह्मज्ञान यही प्राप्त किया। हिमालय की गोद में तपस्या में तल्लीन ऋषियों ने वेद, पुराण, स्मृति व उपनिषदों की संरचना की और यही से सिद्ध योगी तिब्बत, मंगोलिया, मध्य एशिया, चीन, जापान कोरिया व अन्य देशों में गये और वहां हिन्दु संस्कृति की पताका फहराई।

हिमालय की गिरी कन्दराओं में अवतरित सिद्ध योगियों का उल्लेख परमहंस योगानंद ने अपनी आत्मकथा ”आटोग्राफी ऑफ ए योगी“ में किया है। समस्त हिमालय में स्थानीय देवी-देवताओं की अपनी महिमामयी स्मृति है और अपना स्वतंत्र अलौकिक अस्तित्व। आज भी उत्तराखण्ड में देवता ”अतराते“ हैं और उनको प्रसन्न करने के लिए ”जागर“ लगता है। उत्तराखण्ड सिद्ध क्षेत्र अनादिकाल से रहा है। यहां अनेकानेक स्थानीय देवता सिद्ध पुरुषों के पूज्य देवी-देवता ही हैं। आज भी यहां नाथ सिद्धियों की परम्परा विद्यमान है और स्थान नामों के साथ ”नाथ“ शब्द जुड़ा हुआ है जैसे नागनाथ, गणनाथ, बैजनाथ इत्यादि। सिद्धगण विश्व में अपने सुवक्त योग देह द्वारा अपनी इच्छानुसार भ्रमण करते हैं और विद्वान नाना प्रकार से जीवों का कल्याण करते हैं सिद्ध जीवनमुक्त महापुरुष है। उत्तराखण्ड की साधकों के सिद्ध क्षेत्र के रुप में अत्यधिक गहन निरुपण की आवश्यकता है। यहां के स्थानीय देवी देवता व उनको आह्वान किये जाने वाले मंत्रों को अधिक गहराई से अध्ययन के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।

सिद्धगण विश्व में अपने सुवक्त योग देह द्वारा अपनी इच्छानुसार भ्रमण करते हैं और विद्वान नाना प्रकार से जीवों का कल्याण करते हैं सिद्ध जीवनमुक्त महापुरुष है। उत्तराखण्ड की साधकों के सिद्ध क्षेत्र के रुप में अत्यधिक गहन निरुपण की आवश्यकता है। यहां के स्थानीय देवी देवता व उनको आह्वान किये जाने वाले मंत्रों को अधिक गहराई से अध्ययन के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।

भारत का सिरमौर हिमालय जहां भारत की भौतिक समृद्धि तथा सुख शांति स्रोत रहा है वहीं आध्यात्मिक सुख शांति की पावन गंगा का भी स्रोत रहा है। यह भौतिक गंगा, यमुना आदि का स्रोत जो है ही और चिरन्तन रुप में बना रहेगा। आखिर पुण्य सलिला भागीरथी, गंगा देवलोक से उतर कर यही हिमालय के अधिष्ठाता देव शिवजी के जटाजूट में खेलती, क्रीडा करती हुई भू लोक में गयी और इसी के सिर पर हिमालय से लेकर गंगा-सागर तक साधना-भजन करते हुए मानव ने अपने तीनों पापो- आधिभौतिक, आधि दैविक और आध्यात्मिक से छुटकारा पाते हुए परमानन्द के पारावार में निमग्न हुए जनों का उद्धार किया।

मानसरोवर को नापने वाले पहले संतः- एक्‍सक्‍लूसिव- हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्‍तराखण्‍ड

पौराणिक काल से ही मानसरोवर एवं कैलाश पर्वत रहस्यों से घिरे रहे हैं जिनके विषय में अनेक किंवदतियां प्रचलित हैं। ऐसे दुर्गम स्थलों पर पहुंच वैज्ञानिक खोज करने तथा मान सरोवर एवं गौरी कुण्ड में नाव चलाने की बात शायद कोई सन्यासी सोच भी नहीं सकता था किन्तु स्वामी प्रणवानंद ऐसे ही सन्यासी थे जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक साधना के साथ ही वैज्ञानिक खोज में बराबर की रुचि ली और कुछ ऐसे साहसिक कार्य कर दिखाये जो आज भी हमें आश्चर्य में डाल देते हैं। मानसरोवर, कैलाश एवं मान्धाता पर्वतों की तलहटी में स्थित है। समुद्र की तरह दिखने वाला यह सरोवर 14950 फीट की ऊॅचाई पर है। सन्यासी, वैज्ञानिक, अधियात्रा स्वामी प्रणवानंद ने मान सरोवर पर नौका अभियान चलाया था। उनकी उस नाव का नाम ज्ञान नौका था जो स्टील की बनी थी। यह नाव इस तरह बनी थी कि उलट जाये तो पानी में डूबे नहीं। उसमें चार लोग बैठ सकते थे। वह यंत्रचालित थी। ज्ञान नौका मानसरोवर तक ले जाना भी एक साहसिक और जोखिम भरा कार्य था क्योंकि सन् 1942 में कैलाश मानसरोवर का पथ अत्यन्त दुर्गम था। उसी दुर्गम पथ से स्टील की नाव के अलावा वे रबड़ की एक डोंगी भी ले गये थे। उस डोंगी का नाम जन्म भूमि रखा था। ठण्ड और बर्फीली ऑधी की उपेक्षा करते हुए स्वामी जी ने उत्ताल तरंगों वाले मान सरोवर पर वैज्ञानिक अनुसंधान किया था। उनके उस अपूर्व अभियान का उद्देश्य मानसरोवर के जल एवं तल की जांच करना था। इस सरोवर के बीच में जो गर्म जल के सोते हैं, उनका पता लगाना भी उनका उद्देश्य था। स्वामी जी ने पता लगाया कि मानसरोवर में पानी की गहराई तीन सौ फीट है। सरोवर की परिक्रमा करते हुए उन्होंने उसकी परिधि भी नापी थी और यह पता भी लगाया था कि सरोवर का क्षेत्रफल 360 वर्गकिलोमीटर है।
कोई आश्चर्य नहीं यदि भारत के सुदूर समुद्रवर्ती भागों से भी व्यक्ति यहां उत्तराखण्ड की पुण्य भूमि में आकर साधनारत हो, क्योंकि बहुत से साधक यहां सुख शांति प्राप्त करने का प्रयास करते आए हैं। उत्तराखण्ड की ऐसी ही कुछ दिव्य विभूतियों, साधु संतों का उल्लेख हम कर रहे हैंः-

मानसरोवर तिब्बत में स्थित एक झील है। हिन्दू तथा बौद्ध धर्म में इसे पवित्र माना गया है।  यह झील लगभग 320 वर्ग किलोमाटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसके उत्तर में कैलाश पर्वत तथा पश्चिम में राक्षसताल है। यह समुद्रतल से लगभग 4556 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसकी परिमिति लगभग 88 किलोमीटर है और औसत गहराई 90 मीटर।  हिन्दू धर्म में इसे पवित्र माना गया है। इसके दर्शन के लिए हज़ारों लोग प्रतिवर्ष कैलाश मानसरोवर यात्रा में भाग लेते है। हिन्दू विचारधारा के अनुसार यह झील सर्वप्रथम भगवान ब्रह्मा के मन में उत्पन्न हुआ था। संस्कृत शब्द मानसरोवर, मानस तथा सरोवर को मिल कर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – मन का सरोवर। यहां देवी सती के शरीर का दांया हाथ गिरा था। इसलिए यहां एक पाषाण शिला को उसका रूप मानकर पूजा जाता है। यहां शक्तिपीठ है। बौद्ध धर्म में भी इसे पवित्र माना गया है। एसा कहा जाता है कि रानी माया को भगवान बुद्ध की पहचान यहीं हुई थी। जैन धर्म तथा तिब्बत के स्थानीय बोनपा लोग भी इसे पवित्र मानते हैं।  इस झील के तट पर कई मठ भी हैं।

 

पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बताई जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हुण, सकास, नाग, खश आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है।

भगवान शंकर की क्रीडास्थली- उत्तराखण्डः-
एक कथा के अनुसार एक बार आकाशवाणी हुई- ”संसार में कोई जगह नहीं है जहां शिवलिंग नहीं है। इसीलिए ऋषियों! आश्चर्य मत करों। यदि शिवलिंग दुनियां को ढक ले।“ तब ब्रह्मा, विष्णु, एवं महेश, इन्द्र, सूर्य व चन्द्रमा तथा देवता गण जो जागेश्वर में स्तुति कर रहे थे, अपना-अपना अंश छोड़कर चले गये। पृथ्वी लिंग के भार से दबने लगी और उसने शिव से अर्चना की कि वह इस भार से मुक्त की जाये। तब देवताओं ने लिंग का आदि-अंत जानना चाह। पृथ्वी ने ब्रह्मा से पूछा- लिंग कहां तक है। ब्रह्मा के झूठ बोलने पर पृथ्वी ने ब्रह्मा को शाप दिया- तुमने एक बड़े देवता होकर झूठ बोला है। इसलिए तुम्हारी पूजा संसार में नहीं होगी। ब्रह्मा ने भी पृथ्वी को शॉप दिया- तुम भी कलयुग के अंत में क्लेशों से भर जाओगी। परन्तु लिंग का प्रभाव रोके रखने की समस्या का अभी समाधान नहीं हुआ था। अतः देवता विष्णु के पास गये और विष्णु शिव के पास गये और उनसे अनुनय-विनय के बाद यह बाद तय हुई कि विष्णु सुदर्शन चक्र से लिंग को काटे और तमाम खण्डों में उसे बांट दें। अतः जागेश्वर में लिंग काटा गया और वह नौ खण्डों में विभक्त किया गया। जिसके नाम इस प्रकार हैंः- (1) हिमाद्रि खण्ड (2) मानस खण्ड (3) केदार खण्ड (4) पाताल खण्ड जहां नाग लोक लिंग पूजा करते हैं (5) कैलाश खण्ड जहां शिव स्वयं विराजते हैं (6) काशी खण्ड जहां विश्वनाथ है (7) रेवा खण्ड- जहां रेवा नदी है जिसके पत्थरों की पूजा नर्वदेश्वर के रुप में होती है। यहां के शिवलिंग का नाम रामेश्वर है। (8) ब्रह्मा खण्ड जहां गोकणेंश्वर महादेव है (9) नगर खण्ड जिसमें उज्जैन नगरी है।

महादेव की लिंग रुप में पूजा जागेश्वर से ही प्रारम्भ हुई।  मंदिर के मुख्य पुजारी के अनुसार एक सचाई यह भी है कि इसी मंदिर से ही भगवान शिव की लिंग पूजा के रूप में शुरूआत हुई थी ।यहां की पूजा के बाद ही पूरी दुनिया में शिवलिंग की पूजा की जाने लगी और कई स्वयं निर्मित शिवलिंगों को बाद में ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाने लगा। मुख्य पुजारी के अनुसार यहां स्थापित शिवलिंग स्वयं निर्मित यानी अपने आप उत्पन्न हुआ है और इसकी कब से पूजा की जा रही है इसकी ठीक ठीक से जानकारी नहीं है, लेकिन यहां भव्य मंदिरों का निर्माण आठवीं शताब्दी में किया गया है. घने जंगलों के बीच विशाल परिसर में पुष्टि देवी (पार्वती), नवदुर्गा, कालिका, नीलकंठेश्वर, सूर्य, नवग्रह सहित 124 मंदिर बने हैं।

जागेश्वर महादेव मन्दिर का प्रवेश द्वार“कूर्मांचल में जागीश्वर सबसे बड़ा मंदिर है, जिसमें बहुत सी गूंठें हैं। मानसखंड में भी इसका वर्णन है, यहां अनेक देवता हैं, जिनके मंदिर अन्यत्र भी हैं, यथा तरुण जागीश्वर, वृद्ध जागीश्वर, भांडेश्वर, मृत्युंजय, डंडेश्वर, गडारेश्वर, केदार, बैजनाथ, वैद्यनाथ, भैरवनाथ, चक्रवक्रेश्वर, नीलकंठ, बालेश्वर, विमेश्वर, बागीश्वर, बाणीश्वर, मुक्तेश्वर, डुंडेश्वर, कमलेश्वर, हाटेश्वर, पाताल भुवनेश्वर, भैरवेश्वर, लक्ष्मीश्वर, पंचकेदार, बह्रकपाल, क्षेत्रपाल या समद्यो तथा यह शक्तियां भी पूजीं जाती हैं- पुष्टि, चंडिका, लक्ष्मी, नारायणी, शीतला एवं महाकाली। वृद्ध जागीश्वर ऊपर चोटी में चार मील पर है और क्षेत्रपाल लगभग ५ मील पर है। यह मंदिर अल्मोड़ा और गंगोली के बीच में है। अल्मोड़ा से उत्तर की ओर १६ मील पर यह मंदिर है। यहां महादेव ज्योर्तिलिंग के रुप में पूजे जाते हैं। सबसे बड़े मंदिर जागीश्वर, मृत्युंजय और डंडेश्वर हैं, कहा जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने मृत्युंजय का मंदिर वहां आकर बनवाया था तथा सम्राट शालिवाहन ने जागीश्वर का मंदिर बनवाया। पश्चात में शंकराचार्य ने आकर इन तमाम मंदिरों की फिर से प्रतिष्ठा करवाई तथा कत्यूरी राजाओं ने भी इसका जीर्णोद्धार किया।” 

उत्तराखण्ड के अलौकिक संतः-
जग्दगुरु आदिशंकराचार्य जी अलौकिक योगी, अप्रतिम आचार्य, अभूतपूर्व संगठनकर्ता, असाधारण क्रांतिकारी महापुरुष थे। आचार्य शंकर के जन्मकाल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। किन्तु अधिकांश विद्वान इनका जन्म 684 ई0 एवं विरोधान 716 ई0 को हुआ मानते हैं। उनके जीवन पर विभिन्न भाषाओं में सैकड़ों ग्रंथ लिखे गये हैं केवल संस्कृत भाषा में ही लगभग बत्तीस प्राचीन ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें उनके अलौकिक व्यक्तित्व की विविध सामग्री संकलित है। आचार्य शंकर का जन्म केरल प्रदेश के कालड़ी नामक ग्राम में हुआ था। इनके माता पिता नम्बूदरी ब्राह्मण थ। नम्बूदरी ब्राह्मण निष्ठावान, सदाचारी और वैदिक परम्परा के अनुयायी होते हैं। आचार्य शंकर के पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सती था। माता-पिता शिवजी के अनन्य उपासक थे। इनके कोई संतान नहीं थी। शिवजती ने इनकी उपासना और भक्ति से प्रसन्न होकर वरदान दिया था कि यदि सर्वगुणसम्पन्न पुत्र चाहते हो तो वह दीर्घायु नहीं होगा। यदि दीर्घायु पुत्र चाहते हो तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा। आचार्य शंकर के पिता ने कहा मुझे सर्वज्ञ पुत्र ही दीजिए भगवान। दीर्घायु किन्तु मूर्ख पुत्र को लेकर मैं क्या करुंगा। भगवान शंकर का वरदान पूर्ण रुप से सार्थक हुआ। आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचम तिथि को हुआ था। यद्यपि वे केवल 32 वर्ष की आयु में ही शरीर त्याग कर गये थे लेकिन उनकी गणना संसार के सर्वोच्च आचार्यो, दार्शनिको, कवियों और संतों में होती है।
आचार्य शंकर ने बद्रीनाथ धाम से थोड़ी दूर जोशीमठ की स्थापना की। फिर व्यास गुफा में रहकर ग्रंथ लेखन का कार्य प्रारम्भ किया। इसी गुफा मेंं रहकर वेदव्यास महाराज ने महाभारत की रचना की थी। आचार्य शंकर यहां केवल लेखन कार्य नहीं करते थे बल्कि कुछ चुने हुए शिष्यों को पढ़ाते भी थे तथा योग साधना की शिक्षा भी देते थे। एक दिन एक ब्राह्मण यहां आया। उसने शिष्यों से पूछा- ये कौन हैं और यहां क्या पढाते हैं। शिष्यों ने कहा- ये हमारे महान गुरु आचार्य शंकर है। उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के महान मर्मज्ञ हैं। ब्रह्मसूत्रों पर इन्होंने भाष्य लिखा है- वह ब्राह्मण आश्चर्य प्रकट करते हुए बोल उठा- भला इस कलियुग में कौन ऐसा व्यक्ति है जो ब्रह्मसूत्रों का मर्म समझता हो। मैं तो ऐसे व्यक्ति की खोज में हूं। यदि तुम्हारे गुरु मेरे एक संदेह का निवारण कर सकें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। शिष्यों ने इस ब्राह्मण को आचार्य शंकर से मिलाया। उन्होंने उस ब्राह्मण के प्रश्न का उत्तर विस्तारपूर्वक दिया। यह शास्त्रार्थ सात दिन तक चला। वह ब्राह्मण स्वयं वेदव्यास जी थे। शंकर की आयु तब केवल 16 वर्ष की थी। वेदव्यास जी ने उनको सोलह वर्ष की और आयु प्रदान कर दी।
हनुमान के परम भक्त नीब करौरी वाले बाबाः-
एक सिद्ध पुरुष थे नीब करौरी वाले चमत्कारी बाबा। कहा जाता है कि उनको हनुमान जी की सिद्धि प्राप्त थी। बाबा के कई आश्रम है जिसमें कैंची नैनीताल और वृन्दावन मुख्य हैं। बाबा के जन्म स्थान, जन्म तिथि व वास्तविक नाम के संबंध में भिन्न-भिन्न बातें कहीं और सुनी जाती हैं। कुछ उनका नाम लक्ष्मी नारायण तो कुछ लक्ष्मणदास और अब वे नीब करौरी बाबा के नाम से विख्यात हैं। बाबा राम भक्त हनुमान जी के परम भक्त थे। उन्होंने देश में दर्जनों हनुमान जी के मंदिरों का निर्माण कराया जिसमें नैनीताल से 14 मील दूर कैंची नामक स्थान तथा वृन्दावन के अपने आश्रम में हनुमान जी का भव्य मंदिर मुख्य है। बाबा हनुमान जी के भक्त थे। लोग उनके पास आते और अपने दुखड़े कहते। बाबा सीधा-सादा उपचार बताते- हनुमान जी पर प्रसाद चढ़ा देना, भूखे को रोटी खिला देना, बंदरों को चने लड्डू खिला देना। यदि भाग्य में हुआ तो सब ठीक हो जायेगा। बाबा के भक्तजनों के अनुसार देहावसान से पूर्व बाबा कैंची -नैनीताल- स्थित अपने आश्रम से आगरा आये जहां वे अपने एक प्रिय भक्त श्री जगमोहनलाल शर्मा के यहां ठहरे तथा उनको अपने महाप्रस्थान का पूर्वाभ्यास दे दिया। उसी दिन अपना क्षौर कर्म भी कराया।

महर्षि महेश योगीः- 1921ई0- महर्षि महेश योगी आधुनिक संसार मे विशेष बहुचर्चित व्यक्तित्व हैं। महर्षि जी महान सिद्व पुरुष, असाधारण संगठनकर्ता, अपराजेय प्रचारक और मौलिक तत्व चिन्तक हैं। उनके व्यतिक्तत्व में दिव्य शक्ति युक्त सम्मोहन हैं। महर्षि महेश योगी का जन्म सन् 1921 में जबलपुर में हुआ था। उनके गुरु स्वामी ब्रह्मानंद जी 1953 में ब्रह्मलीन हो गये और महेश जी हिमालय के उत्तरकाशी क्षेत्र में एकान्तवास करते हुए तपस्या में लीन हो गये।
हिमालय में तपस्या करते हुए महेश जी को भावातीत ध्यान की प्रविधि उद्घाटित हुई। आपको यह बोध प्राप्त हुआ कि भावातीत ध्यान के द्वारा आज का अशान्त मानव सुख और शांति प्राप्त कर सकता है। अतः इस प्रविधि के प्रचार- प्रसार के लिए उन्होंने भारत का भ्रमण प्रारम्भ कर दिया। सैकड़ों लोगां ने उनकी इस नई प्रविधि को सीखा तथा इसकी मौलिकता, सहजता और उपादेयता से विशेष प्रभावित हुए। सन् 1958 में महर्षि योगी ने कलकत्ता से विश्व भ्रमण के लिए प्रस्थान किया और रंगून, क्वालालम्पुर, हॉगकॉग, हवाई द्वीप होते हुए अमेरिका पहुंचे। तीन वर्ष की अवधि में महर्षि जी ने यूरोप और अमेरिका के समस्त महत्वपूर्ण स्थानों मेंं भारतीय योग विद्या का संदेश पहुंचाया। सहस्रों लोगों को भावातीत ध्यान योग में दीक्षित किया और सैकड़ों योग केन्द्र स्थापित किये। 1961 में ऋषिकेश में मणिकूट पर्वत पर शंकराचार्य स्वामी शांतानंद सरस्वती जी महाराज द्वारा शंकराचार्य नगर तथा ध्यान विद्यापीठ का शिलान्यास हुआ। इस अवसर पर चारों धामों की शक्तियों का आह्वान हुआ। उपस्थित तपस्वियों, महात्माओं, वैदिक पण्डितों ने दैवी शक्ति के अवतरण का अनुभव किया। साधारण जनता को भी दैवी शक्तियों के अवतरण का प्रत्यक्ष प्रमाण मिला। उस समय निर्मल आकाश में सूर्य चमक रहा था फिर भी यज्ञ मण्डप पर कुछ मिनट वर्षा हुई।
महर्षि जी के कार्य का पश्चिम में विस्तार हुआ। 1971 में महर्षि इण्टरनेशनल यूनिवर्सिटी की अमेरिका में स्थापना हुई जिसका प्रशासकीय प्रधान कार्यालय लॉस एंजेल्स में है। यहां ध्यान योग के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य हुआ।
महर्षि जी ने अपने भावातीत ध्यान योग के संबंध में अपनी पुस्तकों में प्रकाश डाला। जिसमें मेडीटेशन, दि साइंस आफ बोइंग एण्ड आर्ट आफ लिविंग, ए रिडिस्कवरी, टू फुलफिल, दि नीड ऑफ अवर टाइम तथा संसार के समस्त प्रमुख पत्रों में प्रकाशित लेख और भाषण हैं।

श्री हैड़ियाखानः
हल्द्वानी से 13 मील दूर कैलाश पर्वत के पृष्ठभाग मेंं गौतम गंगा के तट पर अवस्थित हैड़ाखान नामक गॉव है। यहां पर हरे नाम की औषधि बहुत पैदा होती है। इसलिए इस स्थान को हैड़ाखान क्षेत्र के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यहां पर निवास करने वाले परम पूज्य साम्ब सदाशिव को हैड़ियाखान नाम से जाना जाता है। यहीं पर उस अनामी या अनन्तवासी संत ने शिवालय का निर्माण करवाया।

एक बार एक स्थानीय रईस व्यक्ति घोड़े पर बैठकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में श्री हैड़ियाखान एक शिला पर बैठे हंस रहे थे। उस व्यक्ति ने यह सोचकर कि यह साधु मुझे देखकर हंस रहा है, उनसे इस प्रकार हंसने का कारण पूछा, श्री महाराज ने कहा कि भाई हम तुम्हें देखकर नहीं हंस रहे हैं। श्री बद्रीनाथ मंदिर का घण्टा गिर गया है। उसे कई लोग मिलकर उठा रहे हैं किन्तु वह उठ नहीं रहा है। इसीलिए मुझे हंसी आ रही है। उस व्यक्ति ने इस घटना की जांच की और सदा के लिए शरणागत हो गया।

एक समय श्री हैड़ियाखानी महाराज बद्रीनाथ जी के मंदिर में जाकर मंदिर से बाहर एक चबूतरे पर बैठ गये। मंदिर का पुजारी आपको प्रसाद देने आया परन्तु आप नेत्र बंद करके बैठे रहे और प्रसाद ग्रहण नहीं किया। इस प्रसाद के लिए भक्त गण तरसा करते हैं। तब श्री लक्ष्मी जी स्वयं थाल में भोजन लेकर आपके पास आई। तभी आपने प्रसाद पाया। केवल कुछ भाग्यशाली सिद्ध पुरुषों ने ही इस दृश्य को देखा।
श्री हैड़ियाखान महाराज जहां कहीं जाते थे, वहां के मंदिर के पट अपने आप खुल जाते थे और मंदिर में विराजमान देव आपको अपना साक्षात दर्शन देते थे। श्री हैड़ियाखान महाराज के परम भक्तों में एक श्री ठाकुर गुमान सिंह नौला थे। उन्हें गुमामी भक्त के नाम से पुकारा जाता था। श्री गुमानी हल्द्वानी से लगभग ढाई मील की दूरी पर स्थित घोला नामक ग्राम में रहते थे। एक दिन गुमानी को श्री हैड़ियाखानी के दर्शन हुए जहां श्री हैड़ियाखानी ने उन्हें साक्षात शिव रुप में दर्शन दिये।
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मीडिया की दुनिया की बड़ी शख्सियत प्रणॉय राय का मसूरी का काफी लगाव रहा है, यहां उन्‍होंने काफी समय बिताया है, वह कहते हैं कि राधिका और मैंने कोशिश की है कि एक महीने में तीन दिन हम पहाड़ों पर बिताएं और वैसे भी हिमालय से हमारा गहरा संबंध है। यह दुर्भाग्य है कि हर महीने ऐसा नहीं हो पाता है, लेकिन यह एक सपना है जिसे पूरा करना है। मेरी केवल यही इच्छा है कि हिमालय में हमारे पास वाईफाई मोबाइल फोन्स, इंटरनेट, डीटीएच, स्मार्टफोन्स, टैबलेट्स इत्यादि न हों।
ने कुछ यूं बताया अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में। साथ ही अपनी पत्नी और एनडीटीवी के सह-संस्थापन राधिका रॉय के बारे में दी अपनी राय और साथ ही राजदीप सरदेसाई और अर्णब गोस्वामी को निखारने से लेकर अपनी हिमालय की यात्रा के बारे में बताया। उन्‍होंने बताया कि राधिका ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘इंडिया टुडे’ में एक प्रिंट जर्नलिस्ट थी। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में टेलिविजन का अध्ययन करने से पहले वह एनडीटीवी की संस्थापक थीं।(मैंने उसके बाद जॉइन किया)। यदि मैं एक वाक्य में कहूं तो मैं कहूंगा कि वही है जिसने एनडीटीवी को एक संस्थान के रूप में निर्मित किया। हमें उम्मीद है कि यह सौ सालों से भी ज्यादा चलेगा। शुरू से अबतक एनडीटीवी को स्थापित करने और गुणवत्ता और नैतिकता के उच्च मानदंड का प्रतिपालन जो एनडीटीवी ने हमेशा किया है- ये ऐसे काम हैं जो किसी भी महान मीडिया संस्था का मूल सिद्धांत हैं, इस सबका श्रेय उन्हीं (राधिका) को जाता है।
उच्चतम पत्रकारिता, प्रोडक्शन, और नैतिक मानकों के लिए पहचाने जाने वाली इस संस्थान को ऐसा बनाने के पीछे पिछले 25 सालों में राधिका का जुनून और उसकी प्रेरणा रही है और इस देश में मीडिया क्षेत्र के लिए उसका सबसे बड़ा योगदान रहा है।

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